Tuesday, May 13, 2008

अब तो करो विश्राम ....


अब तो करो विश्राम ..
हाल ही में कांग्रेस के वयोवृद्ध नेता और मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह अपने ही शब्द बाणों से आहत हो गए..। राजनीति की शर-शय्या पर पड़े अपने राजनीतिक देह के परित्याग के लिए उत्तरायण की इंतज़ार कर रहे कॉग्रेस के इस भीष्म पितामह के लिए शायद इससे बुरी स्थिति और न हो सकती जब दूसरों को निशाना बनाने वाले उनके शब्दबाण उन्हें ही लग जाएं। मामला उनकी तथा कथित आत्मकथा- जिसे वे अपने बारे में लिखे गए अलग-अलग व्यक्तियों के लेखों का संकलन मात्र बताते हैं, के विमोचन का है। इधर विमोचित पुस्तक के कथ्य पर विवाद प्रिय और सनसनीखेज मनोविकार के लाइलाज रोग से ग्रसित इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का सतही विष्लेषण शुरू ही हुआ था कि इन चैनलों के ब्रेकिंग न्यूज़ में एक और ख़बर आ गई। राष्ट्रपति भवन ने बाक़ायदा विज्ञप्ति जारी कर इस पुस्तक के महामहिम द्वारा विमोचन किए जाने का खंडन जारी कर दिया। पुस्तक के कुछ प्रकाशित अंश कॉग्रेस के दास मानसिकता के वफ़ादारों को अपने अध्यक्ष के बारे में अनुपयुक्त, अपमानजनक और असहनीय लगा और जल्दी से जल्दी नंबर बढाने की होड़ शुरू हो गई और शायद इसी होड़ में ऱाष्ट्रपति भवन भी शामिल होने से न चूक पाया। प्रति पल वफ़ादारी साबित करने पर आमादा कॉग्रेसियों को जैसे मौक़े की तलाश थी और वे अपने अपने तरकश के तीर अर्जुन पर साधने लगे। अर्जुन सिंह ने इसके दो-एक दिन पहले ये कह कर कि- 'कॉंग्रेस में वफ़ादारी अब सीमित संदर्भों में देखी जाने लगी '-अपने राजनैतिक विरोधियों को मौक़ा भी दे दिया था, जिसमें इसी तरह के मामले का एक संक्षिप्त नाट्यरूपांतरण हम लोगों को देखने को मिल चुका था।
ख़ैर राजनीति में और कॉग्रेस में ये सब नई बात नहीं लेकिन सबसे ज़्यादा चौंकाने वाली बात अर्जुन सिंह का आत्मरक्षार्थ धनुष-बाण रख कर आत्मसमर्पण की मुद्रा में आ जाना लगा और बाद में बाक़ायदा एक प्रेस नो‌ट जारी कर मीडिया से मामले को यहीं पर विश्राम देने की अपील जारी की गई। प्रेस नोट अर्जुन सिंह की पीड़ा, एकाकीपन, संदिग्ध बना दी गई वफ़ादारी को साबित करने की एक और कोशिश तथा इस सबसे अलग भारतीय राजनीति सत्ता के एक अलग अलोकतांत्रिक केन्द्र बन चुकी कॉग्रेस अध्यक्ष के सामने आत्मसमर्पण की असहाय स्थिति ज़्यादा नज़र आती है। लंबी राजनीतिक पारी खेल चुके अर्जुन सिंह, जिनका हर एक शब्द नपा-तुला और गहरे निहितार्थों वाला होता है, जो अनायास ही किसी तरह के बयान देने से गुरेज़ करते हैं,जिनसे कोई भी किसी भी स्थिति में ऐसी टिप्पणी नहीं करा सकता जिस मामले पर उन्होंने कोई राजनैतिक होमवर्क न किया हो, उनके द्वारा जारी किया गया कोई भी बयान किसी सोची समझी रणनीति के बाद ही आता है।

लिहाज़ा अर्जुन सिंह द्वारा जारी प्रेस नो‍ट और उनकी स्वीकारोक्ति पर ध्यान दिया जाना बेहद ज़रूरी लगता है जो दिल्ली के जामिया मिल्लिया इस्लामिया में एक कार्यक्रम में सोनिया-अर्जुन की संवादहीन सार्वजनिक उपस्थिति के तुरंत बाद आया। अर्जुन सिंह ने लिखा है- "मैं यह भी यह भी दर्ज करना चाहूंगा कि जब मार्च १९६० में मैंने पंडित जवाहर लाल नेहरू से मुलाक़ात की थी, उस समय मैंने उन्हें और उनके परिवार को अपनी संपूर्ण वफादारी का वचन दिया था। यह ऐसी प्रतिबद्धता है जो मेरे लिए विश्वास की वस्तु है। मेरे जीवन के पिछले ४८ वर्षों में मैने उसका पूरी निष्ठा से पालन किया है। मैं इस परिवार के अन्य सदस्यों के प्रति भी इस निष्ठा को जीवनपर्यंत बनाए रखूंगा।"

प्रेस को जारी ये नोट कई सवाल खड़े करता है-

१) माननीय अर्जुन सिंह ने अपनी पंडित नेहरू से मुलाक़ात में परिवार के सदस्यों के प्रति आजीवन वफादारी निभाने का वचन दिया- यानि क्या नेहरू के ज़माने से इस विशेषाधिकार प्राप्त परिवार को पार्टी से बड़ा माना जाता था?

२) क्या अंर्राष्ट्रीय सोच और पहचान रखने वाले नेहरू भी वंशवाद परंपरा के पोषक और भविष्य में अपने वंशानुगत सल्तनत के लिए बहादुर सिपाहियों की तलाश में थे?

३) अर्जुन सिंह ने परिवार के प्रति वफ़ादारी का वचन देने की बात को कह कर क्या ये नहीं साबित कर दिया कि आम कॉग्रसी के लिए न तो पार्टी की विचारधारा प्रमुख है और न ही राष्ट्रहित? क्योंकि उन्होंने पार्टी के पर्ति वफादार रहने की क़सम न खा कर परिवार के प्रति वफ़ादारी की क़सम खाई या वचन दिया।

४) क्या इससे ये भी नहीं साबित होता कि वफादारी का मतलब कॉग्रेस में सही में बेहद सीमित अर्थों में है?

५) क्या इस पत्र के माध्यम से अर्जुन सिंह ने नेहरू को भी परिवारवाद या वंशवाद का पोषक बता कर उन्हें भी कठघरे में नहीं खड़ा कर दिया है?

ये पत्र किसी सामान्य कॉंग्रेसी का न होकर एक क्षेत्रीय क्षत्रप का है जिसने लगभग आधी सदी तक अपनी पार्टी के लिए काम किया। अगर ५० वर्षों की सतत वफादारी के बाद भी कोई क़द्दावर नेता अपने को पार्टी सुप्रीमो के सामने इतना असहाय और अशक्त महसूस करता है तो सुप्रीमों की वास्तविक ताक़त का अंदाज़ा आसानी से लगाया जा सकता

यहां एक बात का ज़िक्र और ज़रूर लगता है कि इस पूरे स्वामिभक्त प्रदर्शन के नाटक के लेखक अर्जुन सिंह जी ख़ुद उस समय बन गए थे जब उन्होंने अपनी तीन पीढ़ी तक निभाई वफ़ादारी को चौथी पीढ़ी तक बढ़ाने की कोशिश की। वफ़ादारी का नायाब नमूना पेश करने के क्रम में जब अर्जुन सिंह ने कॉंग्रेस के युवराज में अगला प्रधानमंत्री बनने की क़ाबिलियत खोज ली तो इस तात्विक विश्लेषण से चूक गए वफ़ादार सकते में आ गए। अर्जुन सिंह पर ऐसे भी लोग हमलावर हो गए जिन्होंने इनकी उंगली पकड़ कर राजनीति का ककहरा सीखा होगा। राहुल गांधी को भारत खोज में ही व्यस्त रखने वाले उनके सिपहसालार इस घाघ राजनीति से सकते में आ गए।

हमला-दर-हमला होते देख अर्जुन को राम की याद आना स्वाभाविक था और इसी बीच उन्होंने राम सेतु को आस्था का विषय भी बता डाला। ये वही अर्जुन सिंह हैं जिन्होंने राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद (मस्जिद के विध्वंश के बाद) के वर्षों में लखनऊ में पेरियार मेला लगवाकर बाक़ायदा पेरियार रामायण और अन्य आपत्तिजनक सामग्रियों को बंटवाया था जिसमें बताया गया था कि राम और सीता रिश्ते में भाई बहन थे। शायद उस समय अर्जुन सिंह को ये नहीं पता था कि राम करोड़ों हिंदुओं के लिए पूजनीय और करोड़ों मुसलमानों के लिए सम्माननीय व्यक्तित्व हैं।

एक लंबी पारी खेल चुके अर्जुन सिंह वृद्ध हो चुके हैं, अशक्त हो गए हैं,कॉंग्रेस में पहले से ज़्यादा कमज़ोर हो गए हैं और शायद अप्रासंगिक भी लेकिन सत्ता सुख के मधुमेह से ग्रस्त अर्जुन सिंह की राजनैतिक महत्वाकांक्षाएं अभी भी उनका रक्तचाप बढ़ाने से बाज नहीं आ रहीं। लेकिन लगता है अब उनका आत्मविश्वास भी ज़मींदोज़ हो गया है जो कि इस हताशा भरे स्वामिभक्ति प्रदर्शन की सार्वजनिक स्वीकारोक्ति से साफ परिलक्षित होता है।

मामला कुछ और नहीं बल्कि मौजूदा समय में उनसे ज़्यादा प्रासंगिक बचे वफादार कॉंग्रेसी सिपाही और जल्दी से जल्दी कॉंग्रेस को टेकओवर करने के लिए तैयार राहुल की लैपटॉप सज्जित नई पीढ़ी उनसे ये कहना चाहती है--- अब तो करो विश्राम..... /