Wednesday, September 12, 2007

क्या ये हम नहीं...?....

किसी के इतने पास न जा
कि दूर जाना खौफ़ बन जाये,
एक कदम पीछे देखने पर
सीधा रास्ता भी खाई नज़र आये
किसी को इतना अपना न बना
कि उसे खोने का डर लगा रहे
इसी डर के बीच एक दिन ऐसा न आये
कि तू पल पल खुद को ही खोने लगे
किसी के इतने सपने न देख
कि काली रात भी रन्गीली लगे
और......
जब आंख खुले तो बर्दाश्त न हो
जब सपना टूट टूट कर बिखरने लगे..............
किसी को इतना प्यार न कर
कि बैठे बैठे आंख नम हो जाये
उसे गर मिले एक दर्द
इधर जिन्दगी के दो पल कम हो जाये
किसी के बारे मे इतना न सोच
कि सोच का मतलब ही वो बन जाये
भीड के बीच भी लगे तन्हाई से जकडे गये
किसी को इतना याद न कर
कि जहा वो ही नज़र आये...
रह देख देख कर कही ऐसा न होजिन्दगी पीछे छूट जाये
ऐसा सोच कर अकेले न रहना,
किसी के पास जाने से न डरना
न सोच अकेलेपन मे कोई गम नही,
खुद की परछाई देख बोलोगे
......... "ये हम नही

Saturday, September 1, 2007

Faiz Ahamad Faiz..

फैज की इक खासियत थी कि जब भी वो अपना शेर पढ़ते उनकी आवाज कभी ऊँची नहीं होती थी । दोस्तों की झड़प और आपसी तकरार उनके शायरी के मूड को बिगाड़ने के लिए पर्याप्त हुआ करती थी। पर उनके स्वभाव की ये नर्मी कभी भी तत्कालीन राजनीतिक और सामाजिक हालातों पर अपनी लेखनी के माध्यम से चोट करने में आड़े नहीं आई ।१९४७ में विभाजन से मिली आजादी के स्वरूप से वो ज्यादा खुश नहीं थे । उनकी ये मायूसी इन पंक्तियों से साफ जाहिर है....

ये दाग दाग उजाला , ये शब-गजीदा* सहर
वो इंतजार था जिसका वो सहर तो नहीं
ये वो सहर तो नहीं जिस की आरजू लेकर
चले थे यार कि मिल जाएगी कहीं ना कहीं
फलक** के दश्त में तारों की आखिरी मंजिल
(*कष्टभरी ** आसमान)

बोल कि लब आजाद हैं तेरे
बोल, जबां अब तक तेरी है
तेरा सुतवां* जिस्म हे तेरा
बोल कि जां अब तक तेरी है
(* तना हुआ)

देख कि आहनगर* की दुकां में
तुन्द** हैं शोले, सुर्ख है आहन^
खुलने लगे कुफलों के दहाने^^
फैला हर जंजीर का दामन
(*लोहार, ** तेज, ^लोहा, ^^तालों के मुंह)
बोल, ये थोड़ा वक्त बहुत है
जिस्मों जबां की मौत से पहले
बोल कि सच जिंदा है अब तक
बोल कि जो कहना है कह ले....

लियाकत अली खाँ की सरकार का तख्ता पलट करने की कम्युनिस्ट साजिश रचने के जुर्म में १९५१ में फैज पहली बार जेल गए । जेल की बंद चारदीवारी के पीछे से मन में आशा का दीपक उन्होंने जलाए रखा ये कहते हुए कि जुल्मो-सितम हमेशा नहीं रह सकता ।

चन्द रोज और मेरी जान ! फकत* चन्द ही रोज !
जुल्म की छांव में दम लेने पे मजबूर हैं हम
और कुछ देर सितम सह लें, तड़प लें, रो लें
अपने अजदाद की मीरास** है माजूर*** हैं हम
*सिर्फ **पुरखों की बपौती *** विवश
जिस्म पर कैद है, जज्बात पे जंजीरे हैं
फिक्र महबूस है* , गुफ्तार पे ताजीरें** हैं
अपनी हिम्मत है कि हम फिर भी जिये जाते हैं
जिंदगी क्या है किसी मुफलिस की कबा*** है
जिसमेंहर घड़ी दर्द के पैबंद लगे जाते हैं
(* विचारों पर कैद ** बोलने पर प्रतिबंध *** गरीब का कुर्ता)

लेकिन अब जुल्म की मियाद के दिन थोड़े हैं
इक जरा सब्र कि फरियाद के दिन थोड़े हैं...


हम देखेंगे
लाजिम है कि हम भी देखेंगे
वो दिन कि जिसका वादा है
जो लौह-ए-अजल में लिखा है
जब जुल्म ए सितम के कोह-ए-गरां*
रुई की तरह उड़ जाएँगे
दम महकूमों** के पाँव तले
जब धरती धड़ धड़ धड़केगी
और अहल-ए-हिकम*** के सर ऊपर
जब बिजली कड़ कड़ कड़केगी
हम अहल-ए-सफा^, मरदूद-ए-हरम^^
मसनद पे बिठाए जाएंगे
सब ताज उछाले जाएंगे
सब तख्त गिराए जाएंगे.........
और राज करेगी खुल्क-ए-खुदा^^^
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
(* भारी पहाड़ **शोषितों *** सत्तारुढ़ ^पवित्र लोग ^^जिनकी चरमपंथियों ने निंदा की ^^^आम जनता)

अपने समाज के दबे कुचले ,बेघर,बेरोजगार, आवारा फिरती आवाम में जागृति जलाने के उद्देश्य से फैज ने प्रतीतात्मक लहजे में उनकी तुलना गलियों में विचरते आवारा कुत्तों से की। किस तरह आम जनता राजIनतिज्ञों, नौकरशाहों के खुद के फायदे के लिए उनकी चालों में मुहरा बन कर भी अपना दर्द चुपचाप सहती रहती है, ये नज्म उसी ओर इशारा करती है।

ये गलियों के आवारा बेकार कुत्ते
कि बख्शा गया जिनको जौके गदाई*
जमाने की फटकार सरमाया** इनका
जहां भर की दुतकार इनकी कमाई
ना आराम शब को ना राहत सवेरे
गलाजत*** में घर , नालियों में बसेरे
जो बिगड़ें तो एक दूसरे से लड़ा दो
जरा एक रोटी का टुकड़ा दिखा दो
ये हर एक की ठोकरें खाने वाले
ये फाकों से उकता के मर जाने वाले
ये मजलूम मखलूक^ गर सर उठाये
तो इंसान सब सरकशीं^^ भूल जाए
ये चाहें तो दुनिया को अपना बना लें
ये आकाओं की हड्डियाँ तक चबा लें
कोई इनको एहसासे जिल्लत^^^ दिला ले
कोई इनकी सोई हुई दुम हिला दे
(*भीख मांगने की रुचि **संचित धन ***गंदगी ^ आम जनता ^^घमंड ^^^ अपमान की अनुभुति)

फैज ने अपनी शायरी में रूमानी कल्पनाओं का जाल बिछाया पर अपने इर्द गिर्द के राजनीतिक और सामाजिक माहौल को भी उतना ही महत्त्व दिया । एक ओर बगावत का बिगुल बजाया तो दूसरी ओर प्रेयसी की याद के घेरे में उपमाओं का हसीन जाल भी बुना ।इसलिए समीक्षकों की राय में रूप और रस. प्रेम और राजनीति, कला और विचार का जैसा सराहनीय समन्वय आधुनिक उर्दू शायरी में फैज का है उसकी मिसाल खोज पाना संभव नहीं है ।

वो लोग बहुत खुशकिस्मत थे
जो इश्क को काम समझते थे
या काम से आशिकी करते थे
हम जीते जी मशरूफ* रहे
कुछ इश्क किया कुछ काम किया
काम इश्क के आड़े आता रहा
और इश्क से काम उलझता रहा
फिर आखिर तंग आकर हमने
दोनों को अधूरा छोड़ दिया
(व्यस्त*)

Mazaaz Lukhnavi ki Nazme....

मजाज लखनवी की ये नज्म आवारा उर्दू की बेहतरीन नज्मों में से एक मानी जाती है. यूँ तो अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण करने वाले मजाज, प्रगतिशील शायरों में एक माने जाते थे, पर दिल्ली में अपना दिल खोने के बाद अपनी जिंदगी से वे इस कदर हताश हो गए कि शराब और शायरी के आलावा कहीं और अपना गम गलत नहीं कर सके ।

शहर की रात और मैं नाशाद-ओ-नाकारा फिरूँ
जगमगाती जागती सड़कों पे आवारा फिरूँ
गैर की बस्ती है कब तक दर-ब-दर मारा फिरूँ ?
ऐ गम-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ?

झिलमिलाते कुमकुमों की राह में, जंजीर सी
रात के हाथों में दिन की, मोहनी तसवीर सी
मेरे सीने पर मगर ,दहकी हुई शमशीर सी
ऐ गम-ए-दिल क्या करूँ ? ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ?
ये रूपहली छांव ये आकाश पर तारों का जाल
जैसे सूफी का तस्सवुर, जैसे आशिक का हाल
आह ! लेकिन कौन समझे कौन जाने दिल का हाल ?
ऐ गम-ए-दिल क्या करूँ ? ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ?

फिर वो टूटा इक सितारा, फिर वो छूटी फुलझड़ी
जाने किसकी गोद में आये ये मोती की लड़ी
हूक सी सीने में उठी, चोट सी दिल पर लगी
ऐ गम-ए-दिल क्या करूँ ? ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ?

रात हँस-हँस कर ये कहती है कि मैखाने में चल
फिर किसी शहनाज-ए-लालारुख के काशाने में चल
ये नहीं मुमकिन तो फिर ऐ दोस्त वीराने में चल
ऐ गम-ए-दिल क्या करूँ ? ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ?

हर तरफ बिखरी हुई रंगीनियाँ रअनाईयाँ
हर कदम पर इशरतें लेतीं हुईं अंगड़ाईयाँ
बढ़ रहीं हैं गोद फैलाए हुए रुसवाईयाँ
ऐ गम-ए-दिल क्या करूँ ? ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ?