tag:blogger.com,1999:blog-89255337918756271802024-03-18T20:40:23.895-07:00मेरी-तेरी बात...न हम दक्षिण न हम वाम...
कुछ बातें जिनका निष्पक्ष, बेबाक बेलौस अंदाज़ में भावनागत, पेशागत,व्यक्तिगत पूर्वाग्रहरहित विश्लेषण हो,संवाद हो....
कुछ तेरी....कुछ मेरी लेकिन जो बात हो सबकीअश्विनी मिश्रhttp://www.blogger.com/profile/09724479301528531025noreply@blogger.comBlogger5125tag:blogger.com,1999:blog-8925533791875627180.post-39981567018934652302008-05-13T04:54:00.000-07:002008-05-19T04:16:50.777-07:00अब तो करो विश्राम ....<div align="justify"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhFIe6h2dJ64gpTFjjTN-gzVhaJXe5EfZmPRnmzfng3x4RmtKUIOPpV_m6bBMJUAr1VJ0zZWq5lFDPd12XaZ2RH_3n46bkLO592w5bGtFxQ3lNCvIL1TFqdWkg1Tys5G2ZLj6cQ6I7w0sWs/s1600-h/Arjun+Letter.JPG"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5199836435961378594" style="FLOAT: left; MARGIN: 0px 10px 10px 0px; CURSOR: hand" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhFIe6h2dJ64gpTFjjTN-gzVhaJXe5EfZmPRnmzfng3x4RmtKUIOPpV_m6bBMJUAr1VJ0zZWq5lFDPd12XaZ2RH_3n46bkLO592w5bGtFxQ3lNCvIL1TFqdWkg1Tys5G2ZLj6cQ6I7w0sWs/s400/Arjun+Letter.JPG" border="0" /></a><br /></div><div align="justify"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgbRyBNhoH1pYX-W9uAZPC1UC0z8HE0PJgxYVVHhGwFaYz4sA9HqKrL-mPfh7HhA6JcVzgGpszlc5PGEdTIPEfLbEJ0Fn5jt9wuHYMO88-X7aWqAw3qFXTzQKVPMud9-kmHsBoRjt06-Dh_/s1600-h/arjun.jpg"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5199831419439576850" style="DISPLAY: block; MARGIN: 0px auto 10px; CURSOR: hand; TEXT-ALIGN: center" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgbRyBNhoH1pYX-W9uAZPC1UC0z8HE0PJgxYVVHhGwFaYz4sA9HqKrL-mPfh7HhA6JcVzgGpszlc5PGEdTIPEfLbEJ0Fn5jt9wuHYMO88-X7aWqAw3qFXTzQKVPMud9-kmHsBoRjt06-Dh_/s400/arjun.jpg" border="0" /></a> <strong>अब तो करो विश्राम</strong> .. </div><div align="justify">हाल ही में कांग्रेस के वयोवृद्ध नेता और मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह अपने ही शब्द बाणों से आहत हो गए..। राजनीति की शर-शय्या पर पड़े अपने राजनीतिक देह के परित्याग के लिए उत्तरायण की इंतज़ार कर रहे कॉग्रेस के इस भीष्म पितामह के लिए शायद इससे बुरी स्थिति और न हो सकती जब दूसरों को निशाना बनाने वाले उनके शब्दबाण उन्हें ही लग जाएं। मामला उनकी तथा कथित आत्मकथा- जिसे वे अपने बारे में लिखे गए अलग-अलग व्यक्तियों के लेखों का संकलन मात्र बताते हैं, के विमोचन का है। इधर विमोचित पुस्तक के कथ्य पर विवाद प्रिय और सनसनीखेज मनोविकार के लाइलाज रोग से ग्रसित इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का सतही विष्लेषण शुरू ही हुआ था कि इन चैनलों के ब्रेकिंग न्यूज़ में एक और ख़बर आ गई। राष्ट्रपति भवन ने बाक़ायदा विज्ञप्ति जारी कर इस पुस्तक के महामहिम द्वारा विमोचन किए जाने का खंडन जारी कर दिया। पुस्तक के कुछ प्रकाशित अंश कॉग्रेस के दास मानसिकता के वफ़ादारों को अपने अध्यक्ष के बारे में अनुपयुक्त, अपमानजनक और असहनीय लगा और जल्दी से जल्दी नंबर बढाने की होड़ शुरू हो गई और शायद इसी होड़ में ऱाष्ट्रपति भवन भी शामिल होने से न चूक पाया। प्रति पल वफ़ादारी साबित करने पर आमादा कॉग्रेसियों को जैसे मौक़े की तलाश थी और वे अपने अपने तरकश के तीर अर्जुन पर साधने लगे। अर्जुन सिंह ने इसके दो-एक दिन पहले ये कह कर कि- 'कॉंग्रेस में वफ़ादारी अब सीमित संदर्भों में देखी जाने लगी '-अपने राजनैतिक विरोधियों को मौक़ा भी दे दिया था, जिसमें इसी तरह के मामले का एक संक्षिप्त नाट्यरूपांतरण हम लोगों को देखने को मिल चुका था। </div><div align="justify"><span class=""> ख़ैर</span> राजनीति में और कॉग्रेस में ये सब नई बात नहीं लेकिन सबसे ज़्यादा चौंकाने वाली बात अर्जुन सिंह का आत्मरक्षार्थ धनुष-बाण रख कर आत्मसमर्पण की मुद्रा में आ जाना लगा और बाद में बाक़ायदा एक प्रेस नोट जारी कर मीडिया से मामले को यहीं पर विश्राम देने की अपील जारी की गई। प्रेस नोट अर्जुन सिंह की पीड़ा, एकाकीपन, संदिग्ध बना दी गई वफ़ादारी को साबित करने की एक <span class="">और कोशिश </span>तथा इस सबसे अलग भारतीय राजनीति सत्ता के एक अलग अलोकतांत्रिक केन्द्र बन चुकी कॉग्रेस अध्यक्ष के सामने आत्मसमर्पण की असहाय स्थिति ज़्यादा नज़र आती है। लंबी राजनीतिक पारी खेल चुके अर्जुन सिंह, जिनका हर एक शब्द नपा-तुला और गहरे निहितार्थों वाला होता है, जो अनायास ही किसी तरह के बयान देने से गुरेज़ करते हैं,जिनसे कोई भी किसी भी स्थिति में ऐसी टिप्पणी नहीं करा सकता जिस मामले पर उन्होंने कोई राजनैतिक होमवर्क न किया हो, उनके द्वारा जारी किया गया कोई भी बयान किसी सोची समझी रणनीति के बाद ही आता है।</div><p align="center"><span class=""><span class=""> लिहाज़ा</span></span> अर्जुन सिंह द्वारा जारी प्रेस नोट और उनकी स्वीकारोक्ति पर ध्यान दिया जाना बेहद ज़रूरी लगता है जो दिल्ली के जामिया मिल्लिया इस्लामिया में एक कार्यक्रम में सोनिया-अर्जुन की संवादहीन सार्वजनिक उपस्थिति के तुरंत बाद आया। अर्जुन सिंह ने लिखा है- "मैं यह भी यह भी दर्ज करना चाहूंगा कि जब मार्च १९६० में मैंने पंडित जवाहर लाल नेहरू से मुलाक़ात की थी, उस समय मैंने उन्हें और उनके परिवार को अपनी संपूर्ण वफादारी का वचन दिया था। यह ऐसी प्रतिबद्धता है जो मेरे लिए विश्वास की वस्तु है। मेरे जीवन के पिछले ४८ वर्षों में मैने उसका पूरी निष्ठा से पालन किया है। मैं इस परिवार के अन्य सदस्यों के प्रति भी इस निष्ठा को जीवनपर्यंत बनाए रखूंगा।"</p><p>प्रेस को जारी ये नोट कई सवाल खड़े करता है-</p><p>१) माननीय अर्जुन सिंह ने अपनी पंडित नेहरू से मुलाक़ात में परिवार के सदस्यों के प्रति आजीवन वफादारी निभाने का वचन दिया- यानि क्या नेहरू के ज़माने से इस विशेषाधिकार प्राप्त परिवार को पार्टी से बड़ा माना जाता था?</p><p>२) क्या अंर्राष्ट्रीय सोच और पहचान रखने वाले नेहरू भी वंशवाद परंपरा के पोषक और भविष्य में अपने वंशानुगत सल्तनत के लिए बहादुर सिपाहियों की तलाश में थे?</p><p>३) अर्जुन सिंह ने परिवार के प्रति वफ़ादारी का वचन देने की बात को कह कर क्या ये नहीं साबित कर दिया कि आम कॉग्रसी के लिए न तो पार्टी की विचारधारा प्रमुख है और न ही राष्ट्रहित? क्योंकि उन्होंने पार्टी के पर्ति वफादार रहने की क़सम न खा कर परिवार के प्रति वफ़ादारी की क़सम खाई या वचन दिया।</p><p>४) क्या इससे ये भी नहीं साबित होता कि वफादारी का मतलब कॉग्रेस में सही में बेहद सीमित अर्थों में है?</p><p>५) क्या इस पत्र के माध्यम से अर्जुन सिंह ने नेहरू को भी परिवारवाद या वंशवाद का पोषक बता कर उन्हें भी कठघरे में नहीं खड़ा कर दिया है? </p><p><span class="">ये</span> पत्र किसी सामान्य कॉंग्रेसी का न होकर एक क्षेत्रीय क्षत्रप का है जिसने लगभग आधी सदी तक अपनी पार्टी के लिए काम किया। अगर ५० वर्षों की सतत वफादारी के बाद भी कोई क़द्दावर नेता अपने को पार्टी सुप्रीमो के सामने इतना असहाय और अशक्त महसूस करता है तो सुप्रीमों की वास्तविक ताक़त का अंदाज़ा आसानी से लगाया जा सकता <span class=""></span></p><p><span class=""><span class=""> यहां</span> एक बात का ज़िक्र और ज़रूर लगता है कि इस पूरे स्वामिभक्त प्रदर्शन के नाटक के लेखक अर्जुन सिंह जी ख़ुद उस समय बन गए थे जब उन्होंने अपनी तीन पीढ़ी तक निभाई वफ़ादारी को चौथी पीढ़ी तक बढ़ाने की कोशिश की। वफ़ादारी का नायाब नमूना पेश करने के क्रम में जब अर्जुन सिंह ने कॉंग्रेस के युवराज में अगला प्रधानमंत्री बनने की क़ाबिलियत खोज ली तो इस तात्विक विश्लेषण से चूक गए वफ़ादार सकते में आ गए। अर्जुन सिंह पर ऐसे भी लोग हमलावर हो गए जिन्होंने इनकी उंगली पकड़ कर राजनीति का ककहरा सीखा होगा। राहुल गांधी को भारत खोज में ही व्यस्त रखने वाले उनके सिपहसालार इस घाघ राजनीति से सकते में आ गए।</span></p><p><span class=""> हमला</span>-दर-हमला होते देख अर्जुन को राम की याद आना स्वाभाविक था और इसी बीच उन्होंने राम सेतु को आस्था का विषय भी बता डाला। ये वही अर्जुन सिंह हैं जिन्होंने राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद (मस्जिद के विध्वंश के बाद) के वर्षों में लखनऊ में पेरियार मेला लगवाकर बाक़ायदा पेरियार रामायण और अन्य आपत्तिजनक सामग्रियों को बंटवाया था जिसमें बताया गया था कि राम और सीता रिश्ते में भाई बहन थे। शायद उस समय अर्जुन सिंह को ये नहीं पता था कि राम करोड़ों हिंदुओं के लिए पूजनीय और करोड़ों मुसलमानों के लिए सम्माननीय व्यक्तित्व हैं। </p><p align="justify"><span class=""><span class=""> एक</span> लंबी पारी खेल चुके अर्जुन सिंह वृद्ध हो चुके हैं, अशक्त हो गए हैं,कॉंग्रेस में पहले से ज़्यादा कमज़ोर हो गए हैं और शायद अप्रासंगिक भी लेकिन सत्ता सुख के मधुमेह से ग्रस्त अर्जुन सिंह की राजनैतिक महत्वाकांक्षाएं अभी भी उनका रक्तचाप बढ़ाने से बाज नहीं आ रहीं। लेकिन लगता है अब उनका आत्मविश्वास भी ज़मींदोज़ हो गया है जो कि इस हताशा भरे स्वामिभक्ति प्रदर्शन की सार्वजनिक स्वीकारोक्ति से साफ परिलक्षित होता है। </span></p><p align="justify"><span class=""><span class=""> मामला</span> कुछ और नहीं बल्कि मौजूदा समय में उनसे ज़्यादा प्रासंगिक बचे वफादार कॉंग्रेसी सिपाही और जल्दी से जल्दी कॉंग्रेस को टेकओवर करने के लिए तैयार राहुल की लैपटॉप सज्जित नई पीढ़ी उनसे ये कहना चाहती है--- अब तो करो विश्राम..... /</span></p>अश्विनी मिश्रhttp://www.blogger.com/profile/09724479301528531025noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8925533791875627180.post-51555973945513728652007-10-10T11:16:00.000-07:002008-05-14T04:00:32.887-07:00जुगनू -फ़िराक़ गोरखपुरीजुगनू<br /><span class=""></span>(बीस बरस के उस नौजवान के जज्बात,जिसकी माँ उसी दिन मर गयी जिस दिन वह पैदा हुआ)<br />ये मस्त-मस्त घटा ये भरी-भरी बरसात<br />तमाम हद्दे-नज़र तक घुलावटों का समाँ!<br />फजा-ए-शाम में डोरे-से पड़ते जाते हैं<br />जिधर निगाह करें कुछ धुआँ सा उठता है<br />दहक उठा है तरावट की आँच से आकाश<br />जे -फ़र्श-ता-फ़लक अँगड़ाइयों का आलम है<br />ये मद भरी हुई पुर्वाइयाँ सनकती हुई<br />झिंझोड़ती है हरी डालियों को सर्द हवा<br />ये शाख़सार के झूलों में पेंग पड़ते हुये<br />ये लाखों पत्तियों का नाचना ये रक्से-नबात( वनस्पतियों का नाच)<br />ये बेख़ुदी-ए-मसर्रत ये वालहाना रक्स<br />ये ताल-सम ये छमाछम-कि कान बजते हैं<br />हवा के दोश प कुछ ऊदी-ऊदी शक्लों की<br />नशे में चूर-सी परछाइयाँ थिरकती हुई<br />उफ़ुक़ पे डूबते दिन की झपकती हैं आखें<br />खामोश सोजे़-दरूँ(हृदय की जलन) से सुलग रही है ये शाम!<br />मेरे मकान के आगे है एक सह्ने-वसीअ(विशाल दालान)<br />कभी वो हँसती नजर आती कभी वो उदास<br />उसी के बीच में है एक पेड़ पीपल का<br />सुना है मैंने बुजु़र्गों से ये कि उम्र इसकी<br />जो न होगी तो होगी कोई छियानवे साल<br />छिडी थी हिन्द में जब पहली जंगे-आजादी<br />जिसे दबाने के बाद उसको ग़द्र कहने लगे<br />ये अहले हिन्द भी होते हैं किस क़दर मासूम!<br />वों दरो- मीर आजा़दी-ए-वतन की जंग<br />वतन से थी कि ग़नीमे-वतन (देश के दुश्मन)से ग़द्दारी<br />बिफर गये थे हमारे वतन के पीरो-जवाँ(बूढ़े-जवान )<br />दयारे हिंद मे रण पढ़ गया चार तरफ़<br />उसी ज़माने में ,कहते हैं,मेरे दादा ने<br />जब अरजे़-हिन्द सिंची ख़ून से ‘सपूतों’ के<br />मियाने-सह्न लगाया था ला के इक पौधा<br />जो आबो-आतशो-ख़ाको-हवा से पलता हुआ<br />ख़ुद अपने क़द से बजोशे-नुमूँ निकलता हुआ<br />फ़ुसूने-रूहे-नबाती रगों में चलता हुआ<br />निगाहे-शौक़ के साँचों में रोज़ ढलता हुआ<br />सुना है रावियों से दीदनी(देखने योग्य) थी उसकी उठान<br />हर एक के देखते ही देखते चढ़ा परवान<br />वही है आज ये छतनार पेड़ पीपल का<br />वही है आज ये छतनार पेड़ पीपल का<br />वो टहनियों के कमण्डल लिये,जटाधारी<br />ज़माना देखे हुये है ये पेड़ बचपन से<br />रही है इसके लिये दाख़िली कशिश मुझमें<br />रहा हूँ देखता चुपचाप देर तक उसको<br />मैं खो गया हूँ कई बार इस नजारे में<br />वो उसकी गहरी जड़ें थीं कि जिन्दगी की जड़ें<br />पसे सकूने-शजर कोई दिल धड़कता था<br />मैं देखता था कभी इसमें जिन्दगी का उभार<br />मैं देखता था उसे हस्ती-ए-बशर की तरह<br />कभी उदास,कभी शादमा,कभी गम्भीर!<br />फ़जा का सुरमई रंग और हो चला गहरा<br />धुला-धुला-सा फ़लक है धुआँ-धुआँ-सी है शाम<br />है झुटपुटा की कोई अज़दहा है मायले-ख्वाब<br />सुकूते-शाम में दरमान्दगी(थकन) का आलम है<br />रुकी - रुकी सी किसी सोच में है मौजे़-सबा<br />रुकी-रुकी सी सफ़ें मलगजी घटाओं की<br />उतार पर है सरे-सह्न रक्स पीपल का<br />वो कुछ नहीं है अब इक जुंबिशे-ख़फी के सिवा<br />ख़ुद अपनी कैफ़ियत-नीलगूँ में हर लह्जा<br />ये शाम डूबती जाती है छिपती जाती है<br />हिजाबे-वक़्त सिरे से है बेहिसो-हरकत<br />रुकी-रुकी दिले-फ़ितरत की धड़कनें यकलख़्त<br />ये रंगे-शाम कि गर्दिश हो आसमाँ में नहीं<br />बस एक वक़्फ़ा-ए-तारीक,लम्हा-ए-शह्ला<br />समा में जुंबिशे-मुबहम-सी कुछ हुई ,फौरन<br />तुली घटा के तले भीगे-भीगे पत्तों से<br />हरी-हरी कई चिंगारियाँ-सी फूट पड़ीं<br />कि जैसे खुलती-झपकती हों बेशुमार आँखें<br />अजब ये आँख-मिचौली थी नूरो-जु़लमत (अँधेरा-रोशनी)की<br />सुहानी नर्म लवें देते अनगिनत जुगनू<br />घनी सियाह खु़नक पत्तियों के झुरमुट से<br />मिसाले-चादरे-शबताब जगमगाने लगे<br />कि थरथराते हुए आँसुओं से साग़रे-शाम<br />छलक-छलक पड़े जैसे बग़ैर सान-गुमान<br />बतूने-शाम में इन जिन्दा क़ुमक़ुमों की चमक<br />किसी की सोयी हुई याद को जगाती थी-<br />वो बेपनाह घटा वो भरी-भरी बरसात<br />वों सीन देख के आँखें मेरी भर आती थीं<br />मेरी हयात ने देखीं हैं बीस बरसातें<br />मेरे जनम के ही के दिन मर गयी थी माँ मेरी<br />वो माँ कि शक्ल भी जिस माँ कि मैं न देख सका<br />जो आँख भर के मुझे देख भी सकी न , वों माँ<br />मैं वों पिसर हूँ जो समझा नहीं कि माँ क्या है<br />मुझे खिलाइयों और दाइयों ने पाला था<br />वों मुझसे कहती थीं जब घिर के आती थी बरसात<br />जब आसमान में हरसू(चारों तरफ) घटाएँ छाती थीं<br />बवक़्ते-शाम जब उड़ते थे हर तरफ़ जुगनू<br />दिये दिखाते हैं ये भूली भटकी रूहों को!<br />मजा़ भी आता था मुझको कुछ उनकी बातों में<br />मैं उनकी बातों में रह-रह के खो भी जाता था<br />पर उनकी बातों में रह-रह के दिल में कसक-सी होती थी<br />कभी --कभी ये कसक हूक बन के उठती थी<br />यतीम दिल को मेरे ये ख़याल होता था<br />ये शाम मुझको बना देती काश! इक जुगनू<br />कि माँ की भटकी हुई रूह को दिखाता राह<br />कहाँ -कहाँ वो बिचारी भटक रही होगी!<br />यह सोच कर मेरी हालत अजीब हो जाती<br />palak की ओट से जुगनू चमकने लगते थे<br />कभी-कभी तो मेरी हिचकियाँ -सी बँध जातीं<br />कि माँ के पास किसी तरह मैं पहुँच जाऊँ<br />और उसको राह दिखाता हुआ मैं घर लाऊँ<br />दिखाऊँ अपने खिलौने दिखाऊँ अपनी किताब<br />कहूँ कि पढ़ के सुना तू मेरी किताब मुझे<br />फिर उसके बाद दिखाऊँ उसे मैं वो कापी<br />कि टेढ़ी-मेढ़ी लकीरें बनी थीं कुछ जिसमें<br />ये हर्फ़ थे जिन्हें लिक्खा था मैंने पहले-पहल<br />दिखाऊँ फिर उसे आँगन में वो गुलाब की बेल<br />सुना है जिसको उसी ने कभी लगाया था<br />ये जब की बात है जब मेरी उम्र ही क्या थी<br />नज़र से गुज़री थीं कुल चार-पाँच बरसातें!<br />गुज़र रहे थे महो-साल और मौसम पर<br />हमारे शहर में आती थी घिर के जब बरसात<br />जब आसमान में उड़ते थे हर तरफ़ जुगनू<br />हवा की मौ-रवाँ पर दिये जलाये huye<br />fizaan में रात गये जब दरख्त पीपल का<br />हज़ारों जुगनुओं से कोहे-तूर(रोशनी का पहाड़) बनता था<br />हजारों वादी-ए-ऐमन थीं जिसकी शाखों में<br />ये देखकर मेरे दिल में ये हूक उठती थी<br />कि मैं भी होता इन्हीं जुगनुओं में इक जुगनू<br />तो माँ की भटकी हुई रूह को दिखाता राह<br />वो माँ ,मैं जिसकी महब्बत के फूल चुन न सका<br />वो माँ,मैं जिसकी महब्बत के बोल सुन न सका<br />वो माँ,कि भींच के जिसको कभी मैं सो न सका<br />मैं जिसके आँचलों में मुँह छिपा के रो न सका<br />वो माँ,कि सीने में जिसके कभी चिमट न सका<br />हुमक के गोद में जिसकी कभी मैं चढ़ न सका<br />मैं जेरे-साया-ए-उम्मीद(आशा की छाया में) बढ़ न सका<br />वो माँ,मैं जिससे शरारत की दाद पा न सका<br />मैं जिसके हाथों महब्बत की मार खा न सका<br />सँवारा जिसने न मेरे झंडूले बालों को<br />बसा सकी न जो होंठों से मेरे गालों को<br />जो मेरी आँखों में आँखें कभी न डाल सकी<br />न अपने हाथों से मुझको कभी उछाल सकी<br />वो माँ,जो कोई कहानी मुझे सुना न सकी<br />मुझे सुलाने को जो लोरियाँ भी गा न सकी<br />वो माँ,जो दूध भी अपना मुझे पिला न सकी<br />वो माँ,जो अपने हाथ से मुझे खिला न सकी<br />वो माँ, गले से जो अपने मुझे लगा न सकी<br />वो माँ ,जो देखते ही मुझको मुस्करा न सकी<br />कभी जो मुझसे मिठाई छिपा के रख न सकी<br />कभी जो मुझसे दही भी बचा के रख न सकी<br />मैं जिसके हाथ में कुछ देखकर डहक न सका<br />पटक-पटक के कभी पाँव मैं ठुनक न सका<br />कभी न खींचा शरारत से जिसका आँचल भी<br />रचा सकी न मेरी आँखों में जो काजल भी<br />वो माँ,जो मेरे लिए तितलियाँ पकड़ न सकी<br />जो भागते हुए बाजू मेरे जकड़ न सकी<br />बढा़या प्यार कभी करके प्यार में न कमी<br />जो मुँह बना के किसी दिन न मुझसे रूठ सकी<br />जो ये भी कह न सकी-जा न बोलूँगी तुझसे!<br />जो एक बार ख़फा़ भी न हो सकी मुझसे<br />वो जिसको जूठा लगा मुँह कभी दिखा न सका<br />कसाफ़तों(गन्दगी) प मेरी जिसको प्यार आ न सका<br />जो मिट्टी खाने प मुझको कभी न पीट सकी<br />न हाथ थाम के मुझको कभी घसीट सकी<br />वो माँ जो गुफ्तगू की रौ में सुन के मेरी bad- bad<br />जो प्यार से मुझको न कह सकी घामड़!<br />शरारतों से मेरी जो कभी उलझ न सकी<br />हिमाक़तों का मेरी फ़लस़फ़ा(दर्शन) समझ न सकी<br />वो माँ जिसे कभी चौंकाने को मैं लुक न सका<br />मैं राह छेंकने को जिसके आगे रुक न सका<br />जो अपने हाथ से वह रूप मेरा भर न सकी<br />जो अपनी आँखों को आईना मेरा कर न सकी<br />गले में डाली न बाहों की पुष्पमाला भी<br />न दिल में लौहे-जबीं(ललाट) से किया उजाला भी<br />वो माँ,कभी जो मुझे बद्धियाँ पिन्हा न सकी<br />कभी मुझे नये कपडों से जो सजा न सकीं<br />वो माँ ,न जिससे लड़कपन के झूठ बोल सका<br />न जिसके दिल के दर इन कुंजियों से खोल सका<br />वो माँ मैं पैसे भी जिसके कभी चुरा न सका<br />सजा़ से बचने को झूठी कसम भी खा न सका<br />वो माँ कि ‘हाँ’ से भी होती है बढ़के जिसकी ‘नहीं’<br />दमे- इताब जो बनती फ़रिश्ता रहमत का<br />जो राग छेड़ती झुँझला के भी महब्बत का<br />वो माँ,कि घुड़कियाँ भी जिसकी गीत बन जायें<br />वो माँ,कि झिड़कियाँ भी जिसकी फूल बरसायें<br />वो माँ,हम उससे जो दम भर को दुश्मनी कर लें<br />तो ये न कह सके-अब आओ दोस्ती कर लें !<br />कभी जो सुन न सकी मेरी <span class="">totali</span> बातें<br />जो दे न सकी कभी थप्पडों की सौगा़तें<br />वो माँ,बहुत से खिलौने जो मुझको दे न सकी<br />ख़िराजे़-सरखु़शी-ए-सरमदी (हमेशा रहने वाली मस्ती का लगाव)जो ले न सकी<br />वो माँ,लड़ाई न जिससे कभी मैं ठान सका<br />वो माँ,मैं जिस पे कभी मुठ्ठियाँ न तान सका<br />वो मेरी माँ, कभी मैं जिसकी पीठ पर न चढ़ा<br />वो मेरी माँ,कभी कुछ जिसके कान में न कहा<br />वो माँ, कभी जो मुझे करधनी पिन्हा न सकी<br />जो ताल हाथ से देकर मुझे नचा न सकी<br />जो मेरे हाथ से इक दिन दवा भी पी न सकी<br />कि मुझको जिन्दगी देने में जान ही दे दी<br />वो माँ,न देख सका जिन्दगी में जिसकी चाह<br />उसी की भटकी हुई रूह को दिखाता राह!<br /><br />ये सोच-सोच के आँखें मेरी भर आती थीं<br />तो जा के सूने बिछौने पे लेट रहता था<br />किसी से घर में न राज अपने दिल के कहता था<br />मेरी दुनिया यतीम थी मेरी हयात यतीम<br />शामों-सहर थी यतीम थे शबो-रोज़<br />यतीम मेरी पढ़ाई थी मेरे खेल यतीम<br />यतीम मेरी मसर्रत थी मेरा गम़ भी यतीम<br />यतीम आँसुओं से तकिया भीग जाता था<br />किसी से घर में न कहता था अपने दिल के भेद<br />हर-इक से दूर अकेला उदास रहता था<br />किसी शमायले-नादीदा(अनदेखी आकृति) को मैं ताका करता था<br />मैं एक वहसते-बेनाम से हुड़कता था<br />गुज़र रहे थे महो-साल और मौसम पर<br />इसी तरह कई बरसात आयीं और गयीं<br />मैं रफ़्ता-रफ़्ता पहुँचने लगा बसिन्ने-शऊर<br />तो जुगनुओं की हकीकत समझ में आने लगी<br />अब उन खिलाइयों और दाइयों की बातों पर<br />मेरा यक़ीं न रहा मुझ प हो गया zaahir<br />कि भटकी रूहों को जुगनू नहीं दिखाते चराग़<br />वो मन-गढ़ंत-सी कहानी थी इक फ़साना था<br />वों be padhi लिखी कुछ औरतों की थी bakwas<br />bhatakati रूहों को जुगनू नहीं दिखाते चराग़<br />ये खुल गया -मेरे बहलाने को थी सारी बातें<br />मेरा यकीं न रहा इन फ़ुजू़ल kisson पर–<br />हमारे शह्र में आती हैं अब भी barsaaten<br />हमारे शह्र पे अब भी घटाएँ छाती हैं<br />हनोज़ भीगी हुई सुरमई फ़जाओं पे<br />khutute -नूर(रोशनी की लकीरें) बनाती हैं जुगनुओं की <span class="">safe</span><br />fazayen -तीराँ(अँधेरा वातावरण) में उड़ती हुई ये कन्दीलें<br />मगर मैं जान चुका हूँ इसे बड़ा होकर<br />किसी की रूह को जुगनू नहीं दिखाते राह<br />कहा गया था जो बचपन में मुझसे झूठ था सब!<br />मगर कभी-कभी हसरत से दिल में कहता हूँ<br />ये जानते हुए,जुगनू नहीं दिखाते चराग!<br />किसी की भटकी हुई रूह को -मगर<br />फिर भीवो झूठ ही सही कितना हसीन झूठ था वो<br />जो मुझसे छीन लिया उम्र के तका़जे़ ने<br />मैं क्या बताऊँ वो कितनी हसीन दुनिया थी<br />जो बढ़ती उम्र के हाथों ने छीन ली मुझसे<br />समझ सके कोई ऐ काश! अह्दे-तिफ़ली(बाल्यकाल) को<br />जहान देखना मिट्टी के एक रेजे को<br />नुमूदे-लाला-ए-ख़ुदरौ (फूलों का बढ़ना-फैलना)में देखना जन्नत<br />करे नज़ारा-ए-कौनेन(विश्व दर्शन) इक घिरौंदे में<br />उठा के रख ले ख़ुदाई को जो हथेली पर<br />करे दवाम को जो कैद एक लमहे में<br />सुना? वो का़दिरे-मुतलक़(ईश्वर) है एक नन्हीं सी जान<br />खु़दा भी सजदे में झुक जाये सामने उसके<br />ये अक़्लो-फ़ह्म (बुद्दि-ज्ञान) बड़ी चीज है मुझे तसलीम(स्वीकार)<br />मगर लगा नहीं सकते हम इसका अन्दाजा़<br />कि आदमी को ये पड़ती है किस क़दर महँगी<br />इक-एक कर के वो तिफ़ली(बालपन) के हर ख़याल की मौत<br />बुलूगे-सिन में सदमें नये ख़यालों के<br />नए ख़याल का धक्का नये ख़यालों की टीस<br />नये तसव्वुरों का कर्ब़(यातना),अलअमाँ(खुदा पनाह दे) ,कि haayaat<br />tamaam ज़ख़्मे-निहाँ(छिपा घाव) हैं तमाम नशतर हैं<br />ये चोट खा के सँभलना मुहाल होता है<br />सुकून रात का जिस वक़्त छेड़ता है सितारकभी-कभी तेरी पायल से आती है jhankaar<br />तो आँखों से आँसू बरसने लगते हैं<br />मैं जुगनू बन के तो तुम तक पहुँच नहीं सकता<br />जो तुमसे हो सके ऐ माँ! वो तरीका बता<br />तू जिसको पाले वो काग़ज़ उछाल दूँ कैसे<br />ये नज़्म मैं तेरे कदमों में डाल दूँ कैसे<br />नवाँ-ए- दर्द(दर्द की आवाज) से कुछ जी तो हो गया हलका<br />मगर जब आती है बरसात क्या करूँ इसको<br />जब आसमान प उड़ते हैं हर तरफ़ जुगनू<br />शराबे-नूर लिये सब्ज़ आबगीनों(प्यालों) में<br />कँवल ज़लाते हुये जु़लमतों के सीनों में<br />जब उनकी ताबिशे-बेसाख़्ता से पीपल कादरख़्त<br />सरवे-चरागाँ को मात करता है<br />न जाने किस लिए आँखें मेरी भर आती हैं!<br />-फ़िराक़ गोरखपुरीअश्विनी मिश्रhttp://www.blogger.com/profile/09724479301528531025noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8925533791875627180.post-35319699069894723582007-09-12T11:11:00.000-07:002007-09-12T11:23:21.717-07:00क्या ये हम नहीं...?....किसी के इतने पास न जा<br />कि दूर जाना खौफ़ बन जाये,<br />एक कदम पीछे देखने पर<br />सीधा रास्ता भी खाई नज़र आये<br />किसी को इतना अपना न बना<br />कि उसे खोने का डर लगा रहे<br />इसी डर के बीच एक दिन ऐसा न आये<br /> कि तू पल पल खुद को ही खोने लगे<br />किसी के इतने सपने न देख<br /><span class=""></span>कि काली रात भी रन्गीली लगे<br />और......<br /> जब आंख खुले तो बर्दाश्त न हो<br />जब सपना टूट टूट कर बिखरने लगे..............<br />किसी को इतना प्यार न कर<br />कि बैठे बैठे आंख नम हो जाये<br />उसे गर मिले एक दर्द<br />इधर जिन्दगी के दो पल कम हो जाये<br />किसी के बारे मे इतना न सोच<br />कि सोच का मतलब ही वो बन जाये<br />भीड के बीच भी लगे तन्हाई से जकडे गये<br />किसी को इतना याद न कर<br />कि जहा वो ही नज़र आये...<br />रह देख देख कर कही ऐसा न होजिन्दगी पीछे छूट जाये<br />ऐसा सोच कर अकेले न रहना,<br />किसी के पास जाने से न डरना<br />न सोच अकेलेपन मे कोई गम नही,<br />खुद की परछाई देख बोलोगे<br />......... "ये हम नहीअश्विनी मिश्रhttp://www.blogger.com/profile/09724479301528531025noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8925533791875627180.post-48898775896616734952007-09-01T13:01:00.000-07:002007-09-01T13:13:16.887-07:00Faiz Ahamad Faiz..फैज की इक खासियत थी कि जब भी वो अपना शेर पढ़ते उनकी आवाज कभी ऊँची नहीं होती थी । दोस्तों की झड़प और आपसी तकरार उनके शायरी के मूड को बिगाड़ने के लिए पर्याप्त हुआ करती थी। पर उनके स्वभाव की ये नर्मी कभी भी तत्कालीन राजनीतिक और सामाजिक हालातों पर अपनी लेखनी के माध्यम से चोट करने में आड़े नहीं आई ।१९४७ में विभाजन से मिली आजादी के स्वरूप से वो ज्यादा खुश नहीं थे । उनकी ये मायूसी इन पंक्तियों से साफ जाहिर है....<br /><br />ये दाग दाग उजाला , ये शब-गजीदा* सहर<br />वो इंतजार था जिसका वो सहर तो नहीं<br />ये वो सहर तो नहीं जिस की आरजू लेकर<br />चले थे यार कि मिल जाएगी कहीं ना कहीं<br />फलक** के दश्त में तारों की आखिरी मंजिल<br />(*कष्टभरी ** आसमान)<br /><br />बोल कि लब आजाद हैं तेरे<br />बोल, जबां अब तक तेरी है<br />तेरा सुतवां* जिस्म हे तेरा<br />बोल कि जां अब तक तेरी है<br />(* तना हुआ)<br /><br />देख कि आहनगर* की दुकां में<br />तुन्द** हैं शोले, सुर्ख है आहन^<br />खुलने लगे कुफलों के दहाने^^<br />फैला हर जंजीर का दामन<br />(*लोहार, ** तेज, ^लोहा, ^^तालों के मुंह)<br />बोल, ये थोड़ा वक्त बहुत है<br />जिस्मों जबां की मौत से पहले<br />बोल कि सच जिंदा है अब तक<br />बोल कि जो कहना है कह ले....<br /><br />लियाकत अली खाँ की सरकार का तख्ता पलट करने की कम्युनिस्ट साजिश रचने के जुर्म में १९५१ में फैज पहली बार जेल गए । जेल की बंद चारदीवारी के पीछे से मन में आशा का दीपक उन्होंने जलाए रखा ये कहते हुए कि जुल्मो-सितम हमेशा नहीं रह सकता ।<br /><br />चन्द रोज और मेरी जान ! फकत* चन्द ही रोज !<br />जुल्म की छांव में दम लेने पे मजबूर हैं हम<br />और कुछ देर सितम सह लें, तड़प लें, रो लें<br />अपने अजदाद की मीरास** है माजूर*** हैं हम<br />*सिर्फ **पुरखों की बपौती *** विवश<br />जिस्म पर कैद है, जज्बात पे जंजीरे हैं<br />फिक्र महबूस है* , गुफ्तार पे ताजीरें** हैं<br />अपनी हिम्मत है कि हम फिर भी जिये जाते हैं<br />जिंदगी क्या है किसी मुफलिस की कबा*** है<br />जिसमेंहर घड़ी दर्द के पैबंद लगे जाते हैं<br />(* विचारों पर कैद ** बोलने पर प्रतिबंध *** गरीब का कुर्ता)<br /><br />लेकिन अब जुल्म की मियाद के दिन थोड़े हैं<br />इक जरा सब्र कि फरियाद के दिन थोड़े हैं...<br /><br /><br />हम देखेंगे<br />लाजिम है कि हम भी देखेंगे<br />वो दिन कि जिसका वादा है<br />जो लौह-ए-अजल में लिखा है<br />जब जुल्म ए सितम के कोह-ए-गरां*<br />रुई की तरह उड़ जाएँगे<br />दम महकूमों** के पाँव तले<br />जब धरती धड़ धड़ धड़केगी<br />और अहल-ए-हिकम*** के सर ऊपर<br />जब बिजली कड़ कड़ कड़केगी<br />हम अहल-ए-सफा^, मरदूद-ए-हरम^^<br />मसनद पे बिठाए जाएंगे<br />सब ताज उछाले जाएंगे<br />सब तख्त गिराए जाएंगे.........<br />और राज करेगी खुल्क-ए-खुदा^^^<br />जो मैं भी हूँ और तुम भी हो<br />(* भारी पहाड़ **शोषितों *** सत्तारुढ़ ^पवित्र लोग ^^जिनकी चरमपंथियों ने निंदा की ^^^आम जनता)<br /><br />अपने समाज के दबे कुचले ,बेघर,बेरोजगार, आवारा फिरती आवाम में जागृति जलाने के उद्देश्य से फैज ने प्रतीतात्मक लहजे में उनकी तुलना गलियों में विचरते आवारा कुत्तों से की। किस तरह आम जनता राजIनतिज्ञों, नौकरशाहों के खुद के फायदे के लिए उनकी चालों में मुहरा बन कर भी अपना दर्द चुपचाप सहती रहती है, ये नज्म उसी ओर इशारा करती है।<br /><br />ये गलियों के आवारा बेकार कुत्ते<br />कि बख्शा गया जिनको जौके गदाई*<br />जमाने की फटकार सरमाया** इनका<br />जहां भर की दुतकार इनकी कमाई<br />ना आराम शब को ना राहत सवेरे<br />गलाजत*** में घर , नालियों में बसेरे<br />जो बिगड़ें तो एक दूसरे से लड़ा दो<br />जरा एक रोटी का टुकड़ा दिखा दो<br />ये हर एक की ठोकरें खाने वाले<br />ये फाकों से उकता के मर जाने वाले<br />ये मजलूम मखलूक^ गर सर उठाये<br />तो इंसान सब सरकशीं^^ भूल जाए<br />ये चाहें तो दुनिया को अपना बना लें<br />ये आकाओं की हड्डियाँ तक चबा लें<br />कोई इनको एहसासे जिल्लत^^^ दिला ले<br />कोई इनकी सोई हुई दुम हिला दे<br />(*भीख मांगने की रुचि **संचित धन ***गंदगी ^ आम जनता ^^घमंड ^^^ अपमान की अनुभुति)<br /><br />फैज ने अपनी शायरी में रूमानी कल्पनाओं का जाल बिछाया पर अपने इर्द गिर्द के राजनीतिक और सामाजिक माहौल को भी उतना ही महत्त्व दिया । एक ओर बगावत का बिगुल बजाया तो दूसरी ओर प्रेयसी की याद के घेरे में उपमाओं का हसीन जाल भी बुना ।इसलिए समीक्षकों की राय में रूप और रस. प्रेम और राजनीति, कला और विचार का जैसा सराहनीय समन्वय आधुनिक उर्दू शायरी में फैज का है उसकी मिसाल खोज पाना संभव नहीं है ।<br /><br />वो लोग बहुत खुशकिस्मत थे<br />जो इश्क को काम समझते थे<br />या काम से आशिकी करते थे<br />हम जीते जी मशरूफ* रहे<br />कुछ इश्क किया कुछ काम किया<br />काम इश्क के आड़े आता रहा<br />और इश्क से काम उलझता रहा<br />फिर आखिर तंग आकर हमने<br />दोनों को अधूरा छोड़ दिया<br />(व्यस्त*)अश्विनी मिश्रhttp://www.blogger.com/profile/09724479301528531025noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8925533791875627180.post-75464063090379748102007-09-01T12:24:00.000-07:002007-09-01T12:33:18.085-07:00Mazaaz Lukhnavi ki Nazme....मजाज लखनवी की ये नज्म आवारा उर्दू की बेहतरीन नज्मों में से एक मानी जाती है. यूँ तो अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण करने वाले मजाज, प्रगतिशील शायरों में एक माने जाते थे, पर दिल्ली में अपना दिल खोने के बाद अपनी जिंदगी से वे इस कदर हताश हो गए कि शराब और शायरी के आलावा कहीं और अपना गम गलत नहीं कर सके ।<br /><br />शहर की रात और मैं नाशाद-ओ-नाकारा फिरूँ<br />जगमगाती जागती सड़कों पे आवारा फिरूँ<br />गैर की बस्ती है कब तक दर-ब-दर मारा फिरूँ ?<br />ऐ गम-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ?<br /><br />झिलमिलाते कुमकुमों की राह में, जंजीर सी<br />रात के हाथों में दिन की, मोहनी तसवीर सी<br />मेरे सीने पर मगर ,दहकी हुई शमशीर सी<br />ऐ गम-ए-दिल क्या करूँ ? ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ?<br />ये रूपहली छांव ये आकाश पर तारों का जाल<br />जैसे सूफी का तस्सवुर, जैसे आशिक का हाल<br />आह ! लेकिन कौन समझे कौन जाने दिल का हाल ?<br />ऐ गम-ए-दिल क्या करूँ ? ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ?<br /><br />फिर वो टूटा इक सितारा, फिर वो छूटी फुलझड़ी<br />जाने किसकी गोद में आये ये मोती की लड़ी<br />हूक सी सीने में उठी, चोट सी दिल पर लगी<br />ऐ गम-ए-दिल क्या करूँ ? ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ?<br /><br />रात हँस-हँस कर ये कहती है कि मैखाने में चल<br />फिर किसी शहनाज-ए-लालारुख के काशाने में चल<br />ये नहीं मुमकिन तो फिर ऐ दोस्त वीराने में चल<br />ऐ गम-ए-दिल क्या करूँ ? ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ?<br /><br />हर तरफ बिखरी हुई रंगीनियाँ रअनाईयाँ<br />हर कदम पर इशरतें लेतीं हुईं अंगड़ाईयाँ<br />बढ़ रहीं हैं गोद फैलाए हुए रुसवाईयाँ<br />ऐ गम-ए-दिल क्या करूँ ? ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ?अश्विनी मिश्रhttp://www.blogger.com/profile/09724479301528531025noreply@blogger.com0